धर्म-अध्यात्म

निरंकारी भक्तों ने भक्ति भाव से परिपूर्ण होकर मनाया भक्ति पर्व 

परमात्मा से जुड़ाव ही सच्ची भक्ति का आधार, निरंकारी सतगुरु ने बताया भक्ति का मूल

उज्जैन। निरंकारी मिशन द्वारा समर्पित संत भक्तों की स्मृति में देशव्यापी भक्ति पर्व मनाया गया। इस उपलक्ष्य में उज्जैन के पंवासा, मक्सी रोड स्थित संत निरंकारी सत्संग भवन पर विशेष सत्संग आयोजित किया गया, जिसमें रतलाम से आए युवा निरंकारी प्रचारक संत श्री गंगवानी ने कहा कि भक्ति परमात्मा के तत्व को जानकर ही सार्थक रूप ले सकती है। निरंकारी मिशन का भी मूल सिद्धांत यही है कि सतगुरु से ब्रह्मानुभूति के बाद ही भक्ति शुरू होती है।
मीडिया सहायक विनोद गज्जर एवं मुखी त्रिलोक बेलानी ने बताया कि भक्ति पर्व पर अनेक वक्ताओं, कवियों और गीतकारों ने विभिन्न विद्याओं के माध्यम से गुरु महिमा और भक्ति का भावपूर्ण वर्णन किया। संतों की प्रेरणादायक शिक्षाओं नेत्र श्रद्धालुओं के जीवन को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समृद्ध किया, वहीं समर्पित संत सन्तोख सिंह के अतिरिक्त अन्य संत भक्तों के तप, त्याग और ब्रह्मज्ञान के प्रचार-प्रसार में उनके अमूल्य योगदान को स्मरण किया गया और उनके जीवन से प्रेरणा ली गईं।
मुख्य आयोजन हरियाणा के समालखा स्थित निरंकारी आध्यात्मिक स्थल पर सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज एवं निरंकारी राजपिता रमित जी के पावन सान्निध्य में हुआ, जिसमें श्रद्धा और भक्ति की अनुपम छटा देखने को मिली। देश-विदेश के हजारों श्रद्धालु इस दिव्य संत समागम में सम्मिलित हुए और सत्संग के माध्यम से आध्यात्मिक आनंद की दिव्य अनुभूति प्राप्त की।
समालखा में हुए भक्ति पर्व समागम में सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज ने कहा कि भक्ति वह अवस्था है, जो जीवन को दिव्यता और आनंद से भर देती है। यह न इच्छाओं का सौदा है, न स्वार्थ का माध्यम। सच्ची भक्ति का अर्थ है परमात्मा से गहरा जुड़ाव और निःस्वार्थ प्रेम। उन्होंने भक्ति की महिमा का उल्लेख करते हुए कहा कि ब्रह्मज्ञान भक्ति का आधार है। यह जीवन को उत्सव बना देता है। भक्ति का वास्तविक स्वरूप दिखावे से परे और स्वार्थ व लालच से मुक्त होना चाहिए। जैसे दूध में नींबू डालने से वह फट जाता है, वैसे ही भक्ति में लालच और स्वार्थ हो तो वह अपनी पवित्रता खो देती है।
सतगुरु माता जी ने उदाहरण देते हुए कहा कि भगवान हनुमान जी, मीराबाई और बुद्ध भगवान का भक्ति स्वरूप भले ही अलग था, लेकिन उनका मर्म एक ही था-परमात्मा से अटूट जुड़ाव। भक्ति सेवा, सुमिरन, सत्संग और गान जैसे अनेक रूपों में हो सकती है, लेकिन उसमें निःस्वार्थ प्रेम और समर्पण का भाव होना चाहिए। गृहस्थ जीवन में भी भक्ति संभव है, यदि हर कार्य में परमात्मा का आभास हो।

Related Articles

Back to top button